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सिनेमैटोग्राफर सुदीप चटर्जी से जानिए पद्मावत और बाजीराव मस्तानी में रचे गए “भंसाली लुक” के बारे में

मशहूर तकनीशियन सुदीप बता रहे हैं उन पेटिंग्स के बारे में जिन्होंने उन्हें प्रभावित किया, निर्देशक संजय लीला भंसाली के साथ सेट पर होने वाले आखिरी पलों के बदलाव के बारे में और आखिर कैसे शूट हुआ पद्मावत का बहुचर्चित जौहर सीन।

Arun Fulara

सिनेमैटोग्राफर सुदीप चटर्जी को सब जानते हैं। खासकर निर्देशक संजय लीला भंसाली की फिल्मों में बने दोनों के कामयाब रिश्तों को लेकर। बाजीराव मस्तानी और पद्मावत में दोनों ने साथ मिलकर जो रचा है, वह भारतीय सिनेमा के लिए एक मील का पत्थर है। इस फोटो निबंध में चटर्जी ने फिल्म कम्पैन्यन के पाठकों के साथ साझा की हैं वे प्रेरणाएं और प्रक्रियाएं, जिन्होंने इन दोनों फिल्मों के लिए 'खास भंसाली' लुक गढ़ा। आइए समझते हैं उन्हीं के शब्दों में:

"संजय के साथ, विशालता भी छोटी पड़ जाती है। हम लोग शूटिंग के पहले खूब तैयारी करते हैं लेकिन ये समझना ज्यादा जरूरी होता है कि उनके मन में क्या है और मैं क्या सोचता हूं और इन दोनों विचारों के संगम से एक साझा सोच बनती है। इसके बाद भी आपको सेट पर अपना दिल, दिमाग और दमखम एकदम खुला रखना होता है और वो इसलिए क्यों सब कुछ एकदम से बदल सकता है जब संजय के मन में एकदम से आखिरी पलों में कोई नया विचार आ जाए।"


"हम लोग खूब स्टोरी बोर्डिंग (परदे पर दिखने वाले किसी सीन का कागज पर चित्र के तौर पर स्केच बनाना) करते हैं। ये इसलिए भी जरूरी होता है कि फिल्म में भारी भरकम सेट्स हैं और लड़ाई के हैरत में डाल देने वाले दृश्य हैं। इसके लिए हम सब यानी निर्देशन टीम, कला निर्देशन टीम, एक्शन निर्देशक, वीएफएक्स (विजुअल इफेक्ट्स) के लोग  एक साथ बैठते हैं और एक साथ काम करते हैं।"

"पद्मावत में हम एक साथ दो अलग अलग तरह की दुनियाएं बना रहे थे। चित्तौड़ को जहां एक भव्य राजसी माहौल देना था, वहीं खिलजी के संसार को थोड़ा देसी, थोड़ा जमीनी लेकिन फिर भी जबर्दस्त आकर्षक बनाए रखना था। दो एक दूसरे से बिल्कुल अलग दिखने वाली इन कायनात का रिश्ता बनाने के लिए मैंने सब कुछ नपे तुले तरीके से शूट किया और ध्यान रखा कि दोनों की ज्यामितीय संरचनाओं में एकरूपता कायम रहे।"

"अक्सर ऐसा होता है कि जब आप कोई फिल्म शूट कर रहे होते हैं तो आपको पता नहीं होता कि आप फॉलो किसे कर रहे हैं, लेकिन पद्मावत की शूटिंग के दौरान, मैं बी एन गोस्वामी की इंडियन मिनिएचर पेटिंग्स के ऊपर लिखी गई किताब से हद दरजे तक प्रभावित रहा। इस फिल्म में लाइटिंग कराते समय मैंने कई बार तर्कों से परे जाकर काम किया। आखिर हमें हर बार सब कुछ तयशुदा तरीके से करने की जरूरत भी क्यों है? मुझे लगता है कि इस तरह के प्रयोग हमें करने चाहिए, हां, ये ध्यान में रखते हुए कि इससे दर्शकों का ध्यान तो नहीं भटक रहा। अगर हम भारतीय लोक कलाओं की बात करें तो वहां चीजें अमूर्त ही ज्यादा होती है, लेकिन इनमें कहानी कहने की कला ऐसी होती है कि वह सुनने वाले की आंखों के सामने कहानी का खाका खींचती चलती है। इसी तरह इन पेटिंग्स में तमाम कठिन संकेत ऐसे भी छिपे होते हैं जिन्हें देखने वाले को समझना और समझाना होता है। इंडियन मिनिएचर पेटिंग्स से मैंने भी यही सीखा। हो सकता है कि देखने वाले को ये असली जैसा न भी लगे लेकिन ये कहानी को खुलकर कहने की एक अलग सी विधा जरूर बनाती चलती है।"

"गोया के नेग्रे कलेक्शन का भी खिलजी के लुक पर काफी असर रहा। ये बहुत ही नाटकीय है। इसने मेरे ऊपर भी बहुत गहरी छाप छोड़ी है। ये कैनवास पर बनी पेटिंग नहीं है, बल्कि ये उसके घर में बने फ्रेस्कोस (गीले प्लास्टर पर वाटर कलर्स से बनी पेटिंग जो सूखने के बाद दीवार या छत का हिस्सा बन जाती है) की तरह है। वह पेटिंग बनाने के बाद उन पर चारकोल वाटर फेंक देते थे। पूरी पेटिंग एक तरह के चारकोल वाश के पीछे छिपी है। ये बहुत ही धार्मिक पेटिंग्स हैं जिनमें एक बहुत ही उच्च कोटि की नैतिकता है।"


"एक कांसेप्ट के तौर पर जौहर सीन शूट करना वाकई बहुत मुश्किल था। संजय का आइडिया एक ऐसी नदी का था जो खून की है और जाकर आग में मिल जाती है। वह शुरू से इस सीन की ग्राफिक क्वालिटी को लेकर बहुत ही निश्चिंत थे। ये शॉट परदे पर बहुत विशाल दिखना था और फिर भी इसमें छिपे भावनात्मक कथन को हमें बरकरार रखना था। पूरे सीन को सोचना, इसकी योजना बनाना और फिर इसका शॉट्स ब्रेक डाउन बनाना बहुत बड़ी चुनौती थी।

"जब संजय ने मुझे स्क्रिप्ट दी तो उन्होंने मुझे कुछ भी समझाया नहीं। उनका मानना है कि आप इसमें अपना विजन लेकर आओ। उनके दिमाग में क्या चल रहा है, इसके बारे में वह प्री प्रोडक्शन के दौरान संकेत देते रहते हैं। आपको इसे पकड़ना है। ये एक बहुत ही सुंदर प्रक्रिया होती है। किसी फोटो या पेटिंग की तरफ देखते हुए वह आपको कुछ अमूर्त संदर्भ पकड़ा देंगे। बाजीराव मस्तानी के लिए, हमारे संदर्भ काफी हद तक गगनेंद्र नाथ टैगोर की पेटिंग्स पर निर्भर रहे। मुझे और संजय को गगनेंद्र नाथ टैगोर की ऐसे ही मिली एक पेटिंग का मैं खास तौर से ज़िक्र करना चाहूंगा, जिसका नाम है, 'द प्रोसेसन'। ये इतनी नाटकीय है फिर भी शांत है। ये बाजीराव मस्तानी के लिए एक अहम संदर्भ था।"

"बाजीराव मस्तानी बनाते समय जो दूसरा सबसे बड़ा प्रभाव हम पर रहा वो थीं राजा रवि वर्मा की पेटिंग्स।"

"जब मैंने बाजीराव मस्तानी की स्क्रिप्ट पढ़ी तो तुरंत मेरे दिमाम में अमर चित्र कथा के अक्स तैर गए। ये एक सहज कहानी थी और मैंने उसका खाका अपने दिमाग में इसी तरह का तैयार किया।"

Adapted from English by Pankaj Shukla, consulting editor

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