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ये होते हैं एक इलाहाबादी के लिए अमिताभ बच्चन के मायने!

इलाहाबाद में अमिताभ बच्चन का नाम लिए बिना कोई बातचीत पूरी नहीं मानी जाती। नाई की दुकान हो, किसी रिक्शे का पिछवाड़ा हो या हो कीथगंज में आर पी गुप्ता की दुकान, हर जगह अमिताभ बच्चन का चेहरा आपको निहारता दिख ही जाएगा।

Nimisha Misra

1हमारे दादाजी विनम्र स्वभाव के गणितज्ञ थे। जाड़ों में वह कंबल ओढ़कर लॉन में ऐसी जगह जा बैठते थे जहां धूप और छांव मिलकर ठिठोली करते हों, और पूरी सुबह वह वहीं बैठे बैठे गुजार देते थे। दादाजी के बारे में मुझे जो कुछ भी याद आता है वह है उनकी किताबें, उनकी बुदबुदाहट, बिना कैलकुलेटर के होने वाली उनकी गणनाएं और ताज़ा घिसे गए चंदन की वो हल्की सी महक, जो जब तक वह जीवित रहे उनके आसपास ही महसूस होती रही और जब वह गुजरे तो भी कुछ अरसे तक हमारे कमरों में उनके होने का एहसास दिलाती रही। कुछ चौंकाने वाली याद अगर बाकी है तो वह है साल 2000 की एक शाम। दादाजी अपनी पुरानी लॉन चेयर भीतर कमरे में खींच लाए और हम सब से मुखातिब होने की बजाय टेलीविजन की तरफ मुंह करके बैठ गए।

जो किसी तरह की शिक्षा न दे सके ऐसे किसी भी मनोरंजन के सख़्त ख़िलाफ रहने वाले मेरे दादा जी की सांसें मानो थम सी गई थीं। और, इसके बाद जो हल्ला मचा, उसने हमें एहसास दिलाया कि इलाहाबाद के सबसे पसंदीदा शख्स की दूसरी पारी शुरू हो चुकी है, केबीसी शुरू हो चुका था! और मैं और मेरे भाई-बहन, इतिहास के इस अनोखे अध्याय से अनजान, दादा जी की पीठ पीछे शैतानियां करने में व्यस्त रहते थे वो दादा जी जिन्हें हमने जाड़ों की नरम धूप में आंगन में लेटकर औंधे पड़े हुए सुस्ताते देखा था, हमारी शैतानियों के शोर से कभी उनकी आंख खुलती तो हमें डांट देते और हम सारे शैतान उनकी आंख लगते ही फिर जुट जाते अपनी अपनी शैतानियों में। ये उन दिनों की बात है जब हमें पहली बार समझ आया कि अमिताभ बच्चन कोई साधारण नहीं बल्कि कोई सीरियस टाइप की बात है।

और, अगर आप इलाहाबाद में हैं तो आपको अमिताभ बच्चन का ये मतलब समझ आता भी है। नाई की दुकान हो, किसी रिक्शे का पिछवाड़ा हो या हो कीथगंज में आर पी गुप्ता की वो दुकान, जहां से सिविल लाइंस की बूटीक पर बिकने वाले महंगे कपड़ों से डरे हुए हमारे जैसे लोग कपड़े खरीदते थे, हर जगह से आपको अमिताभ बच्चन का चेहरा आपको अपनी तरफ देखता मिल ही जाएगा। हर बात में आपको अमिताभ बच्चन का तड़का ज़रूर मिलेगा, और इसकी छौंक भी आपको किसिम किसिम की मिलेगी। जैसे कोई मित्र बहुत बढ़ चढ़कर बोल रहा हो तो उसको बोलेंगे, "बड़े अमिताभ बच्चन हो गए हो!",  किसी को अपनी अकड़ का बखान करना हो, तो वो बोलेगा, "और फिर मैंने अमिताभ बच्चन जैसी एंट्री मारी", यहां तक कि जिस कॉन्वेंट स्कूल में मैं पढ़ती थी वहां की भी हमारी (धार्मिक) शिक्षिकाएं भी खुली हथेलियों पर छड़ी जमाते हुए अपना मुंह इतना बडा खोलती कि आप उनके कंठद्वार पर लटकती अलिजिह्वा (आहार नाल में भोजन जाते समय श्वास नाल को बंद करने वाला अंग) किसी पेंडुलम जैसी झूमती दिखती, बोलतीं, अमिताभ की तरह उच्चारण करो। और, इस नाम का 'भ' हमेशा कानों पर अपने पूरे वजन के साथ टकराता और ये याद दिलाता कि कैसे हम उनकी वजह से एक इतिहास और एक परंपरा का हिस्सा बन रहे हैं।

इलाहाबाद में ऐतिहासिक महत्व की कोई बात तब तक पूरी नहीं होती जब तक अमिताभ बच्चन का नाम उसमें न गिन लिया जाए। जिस शहर में मोतीलाल नेहरू और उनका खानदान, जिसे अब हम गांधी परिवार के तौर पर जानते हैं, बसा, जहां पर इंदिरा गांधी का लालन-पोषण हुआ, मदन मोहन मालवीय, सरोजिनी नायडू, रुडयार्ड किपलिंग, ध्यानचंद और वी पी सिंह ने जहां से अपने अपने पेशों में उड़ान भरी। पूरब का ऑक्सफोर्ड कही जाने वाली इलाहाबाद यूनीवर्सिटी और वो शहर जिसके कंपनीबाग में चंद्रशेखर आज़ाद ने अंग्रेजों की पकड़ में आने में आने की बजाय अपने सिर में गोली मार ली। शायद ये दूरंदेशी ही रही होगी, जिसकी वजह से दादाजी इलाहाबाद के इतिहास से जुड़ी दूसरी शख्सीयतों के बारे में बस बुदबुदाते ही रहे। शायद इन लोगों की यादगार संघर्षशील और हिंसक कहानियां उन कमज़ोर कमरों में अब भी नया बखेड़ा करने में सक्षम थीं।

लेकिन, अमिताभ बच्चन तो अमिताभ बच्चन ही ठहरे। वह एक ऐसा बखान हैं जिन्हें हर कोई पसंद करता है। बैडमिंटन के खेल के बाद चाय शुरू होने पर उनकी कहानियां हमें सुनाई जाती थीं और बार बार सुनाई जाती थीं, उसी टी केक की मिठास के साथ जो हमसे पहले के भी ज़माने के एक आंवे में पकाए जाते थे। इकलौती बार जब मैंने अपने पिता (अमिताभ बच्चन के साथ की फोटो में) को कभी भी खिलखिलाते देखा है तो वो तब था जब वह अमिताभ बच्चन के चुनावी सालों की बातें करते हैं कि कैसे वह मोतीलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज में जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन से मिलने आए थे और हमारे अपने पिताजी (ये बताते हुए खुशी में मेरी खुद की सांस फूलने लगती है) ने उनसे बात भी की! रू ब रू! पूरा पूरा वाक्य बोलते हुए और पूरे इत्मीनान से!

किसी किंवदंती की तरह ही उनके संस्मरण भी समय की सीमाएं लांघ चुके हैं, टीवीएफ फेम निधि सिंह, जिनको कि मैं अपनी कॉलेज सीनियर होने के नाते निधी दी कहकर बुलाती हूं, मुझे तब की बात बता रही थीं जब अमिताभ बच्चन इलाहाबाद के एजी ऑफिस में शूटिंग करने आए थे, वह बताती हैं कि कैसे उनके परिवार के सारे लोग, भाई, भतीजे, चाचा, चाची सब एक साथ वहां पहुंच गए थे, बस उनकी एक झलक पाने। हालांकि ये सब लोग अमिताभ बच्चन की चेहरे की बस एक झलक पाकर ही लौट आए, लेकिन ये कहानी अब पीढ़ी दर पीढ़ी चलती चली आ रही है। ऐसा है अमिताभ बच्चन की स्टार पॉवर का हम सब पर छाया नशा। उन्होंने एक राजनेता जैसा वो सपना भी सच कर दिखाया जब किसी देश के हर तबके का इंसान किसी की बेदाग प्रशंसा करने लगता है।

1984 में जब अमिताभ बच्चन ने इलाहाबाद से लोकसभा चुनाव लड़ा तो यहां के लोगों को उनके इस आभामंडल की झलक भी मिली। अमिताभ ने राजनीति के पुराने खिलाड़ी हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ चुनाव लड़ा और 68.2 फीसदी वोट पाकर उन्हें चारों खाने चित्त कर दिया। इलाहाबाद की तो जैसे बांछे खिल गईं, उनका अनोखा बेटा अब संसद पहुंच चुका था। लोगों ने सपने देखने शुरू कर दिए कि अब शहर की विलुप्त होती विरासत फिर से सजने संवरने लगेगी। हालांकि दूसरे नेताओं की तरह इलाहाबाद का ये बेटा स्पॉटलाइट से दूर होता गया और उन नज़रों में आ गया जो हमेशा दूसरों में खोट तलाशती रहती हैं। बोफोर्स का स्कैंडल सामने आया। दलाली का मामला उछला और इसने अमिताभ बच्चन के सियासी सफर के साथ शहर की उम्मीदों को भी रौंद दिया। इस सबके बाद भी पिताजी आज भी शान से बताते हैं कि कैसे अमिताभ बच्चन ने यूपी की पहली मोबाइल एंबुलेंस सर्विस इलाहाबाद में शुरू कराई और कैसे अपने पैसों से उन्होंने शहर में तमाम सारे विकास के काम कराए।

लेकिन, बोफोर्स स्कैंडल ने लोगों की यादों पर इतना गहरा असर छोड़ा कि अमिताभ बच्चन के तमाम छोटे-मोटे अच्छे कामों पर इसने पानी फेर दिया। भगवान सरीखा दर्जा पा चुकी एक शख्सीयत से इंसानों जैसी इस भूल को कोई भूला नहीं और न ही किसी ने अब तक माफ़ किया। इस बारी होली पर जब मैं घर गई, तो ठंडे हो चुके कबाबों के साथ टकराए जा रहे जामों के बीच मैंने फिर कुछ सुना, ऐसा जो शायद उनके बारे में अब तक की सबसे दुखदायी बात रही, "अमिताभ ने हमारे लिए कुछ नहीं किया, कुछ भी नहीं।" कोई भी समझदार इंसान यही कहेगा कि अमिताभ पर हमारा कोई कर्ज़ थोड़े ही था, और न ही हमने उन्हें सेलेब्रिटी बनाया, हमें उनसे चमत्कार की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। फिर भी अमिताभ बच्चन के साथ जुड़े एहसासों को तर्क की कसौटी पर कसना बेकार है, खासतौर से इलाहाबाद में। तो जब हम सुनते हैं कि बच्चन साहब ने क्लाइव रोड वाले अपने मकान को खुद को किसान बताकर उत्तर प्रदेश में ज़मीन खरीदने के लिए इस्तेमाल किया या फिर कि उनके नाम पर बना स्पोर्ट्स कॉलेज अपनी हालत पर आंसू बहा रहा है, गरीबी की रेखा के नीचे गुजर बसर करने वालों की तादाद के बीच जब उनका नाम पनामा पेपर्स के मामले में उछलता है, तो उनकी उदासीनता पर गुस्सा न करना बहुत मुश्किल हो जाता है, खासतौर से तब जब वह बार बार हम इलाहाबाद वालों की और अपने घर की सोशल मीडिया पर बातें करते हैं।

और, इसके बावजूद अमिताभ बच्चन उस प्रेमी की तरह है जो बिना किसी घटना के या बिना कोई सफाई दिए आधी रात को गायब हो जाता है और आप बस उसकी यादों में खोए रहते हैं। और हम, उनके प्यार में पगलाए इलाहाबाद वाले, उनके साथ बिताए खुशनुमा पलों को याद करते हुए, अपने एकतरफा प्यार को सीने से लगाए रहते हैं। उनके एंग्री यंग मैन वाले दिनों में, जब इलाहाबाद राजनीतिक रूप से सक्रिय हुआ करता था, छात्र संघों के नेता और प्रदर्शनकारी ज़ंजीर के अमिताभ जैसी कलमें बढ़ाए आरक्षण के खिलाफ प्रदर्शन करते और अपने हक़ों की मांग के लिए आत्मदाह तक करने को तैयार रहते। जब केबीसी पर उनका आना शुरू हुआ तो जैसे ही ब्रेक होता और वह दर्शकों के लिए सवाल पूछते तो हम सब फोन करने में ऐसे जुट जाते जैसे उन्होंने सीधे हमसे ही नाम लेकर सवाल पूछा हो और कहा हो कि फोन करो ना! हमें शाहरुख खान तब और ज़्यादा अच्छे लगे जब वह कभी खुशी कभी ग़म में उनके बेटे बने, और फिर इसी अंदाज़ में पले किरदार के रूप में मोहब्बते में। हमें भीतर ही भीतर बड़े बच्चन के स्टारडम की इस लंबी उम्र पर भी संतोष होता था कि हिंदी सिनेमा के बादशाह को भी उनके सामने स्क्रीन पर आधा टाइम बांटना पड़ा।

वह मेरी पीढ़ी के साथ खुद को वैसे ही जोड़ने में सफल रहे जैसे कि उन्होंने मेरे माता-पिता और उनके भी माता-पिता के समय में किया। उनके उत्साही फिल्मी जीवन, उनके लगातार खुद को नएपन के साथ पेश करते रहने और उनके धीर गंभीर और दयालु स्वभाव ने इस सबके बीच हमें उनसे जोड़े रखा। स्कूल के दिनों में हम उन्हें शानदार दादाजी के एक ऐसे प्रतीक के रूप में सोचा करते थे, जिनके साथ तुलना करो तो हम सबके दादा मुरझाए से और निर्जीव से लगते थे। हमारे माता-पिता उनकी सेहत को लेकर परेशान रहते थे, मेरे डॉक्टर पिताजी जब भी बच्चन साहब को नाचते देखते तो सहम जाते और बताते लगते कि कैसे उन्हें मिस्थिमिया ग्रैविस नाम की बीमारी औऱ सेहत से जुड़ी तमाम दूसरी दिक्कतें हैं। और, बाग़बान में एहसान फरामोश बेटों की हरक़तें देखने के बाद शंकाओं में घिरे हमारे बाबा-दादी अपने रिटायरमेंट को लेकर परेशान रहने लगते थे। उनके जाने के बाद, भले वो खुद यहां मौजूद न हों, अब भी उनकी जीती जागती एक शख्सीयत यहां इलाहाबाद में रहती है।

हममें से जो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में काम करने चले आए, उनका अमिताभ बच्चन से रिश्ता थोड़ा नाजुक है। जैसे कि जब वह कठुआ रेप मामले में कुछ नहीं बोलते तो हमें दुख होता है, तब हमें पिंक में उनके किरदार या बेटी बचाओ आंदोलन को लेकर रही उनकी सक्रियता याद आती है। उन्हें कुछ ज्यादा ही करीब से जानने के चलते फिर भी ये जलन ठंडी बनी रहती है। हममें से ज़्यादातर को अब उनकी उम्र की चिंता होती है। जब वह ठग्स ऑफ हिंदोस्तान के सेट पर बीमार पड़ते हैं तो हम सब मिलकर उनके जल्दी ठीक होने की प्रार्थना करते हैं और वह ठीक हो भी जाते हैं, जैसे कि वह हर बार हो जाते हैं। हममें से कुछ अब तिगमांशु धूलिया के साथ हो लेते हैं, जो वैसा उत्तर प्रदेश परदे पर दिखाते हैं जिसे हम जानते हैं, उन किरदारों के साथ जो हमारे जैसे बोलते हैं और उन चीजों के बारे में बोलते हैं जिनमें हमारी दिलचस्पी होती है। और हममें से बाकी ऐसे घूमते हैं जैसे उनका कुछ खो गया है। एक फिल्म प्रोड्यूसर हैं, जिन्हें हम तब से जानते हैं, जब मैं 11 साल की थी, वह कहते हैं कि अब वह अमिताभ बच्चन के साथ खुद को जोड़कर नहीं देख पाते। जब भी वह अमिताभ बच्चन के जुहू वाले बंगले के पास से गुजरते हैं, तो पता होता है कि मन में वह श्रद्धा और प्यार आना चाहिए जिसे महसूस करते हुए ही वह बड़े हुए हैं पर, ऐसा हो नहीं पाता। घर से मीलों दूर, यहां अंधेरी के दड़बेनुमा मकानों में कड़वे हो चले सिगरेट के आखिरी कशों के साथ जो नई बातें शुरू होती हैं तो उनके नाम पर लोग मुंह बिचका लेते हैं।  

फिर करीब करीब उसी अंदाज़ में जिसमें कि हम अपने माता पिता के नश्वर होने की बात करते हैं, कोई बोलता है, या तो अमिताभ बच्चन उस दिन काम करना बंद करेंगे, जब उनका दिल धड़कना बंद कर देगा या जिस दिन उनका दिल धड़कना बंद करेगा, सब कुछ बंद हो जाएगा। इलाहाबाद के लिए दोनों बातें लागू होती हैं। एक एहसास ये भी है कि भले वह हम सबसे दूर निकल गए हों, लेकिन पीछे हमारे घरों में हम लोग कभी उनसे दूर नहीं जा पाए। सच में देखा जाए तो ना तो कोई दूसरा अभिनेता, ना कोई दूसरी सियासी शख्सीयत, ना ही कोई दूसरा ब्रांड उनसे लंबी लकीर अब तक खींच पाया है। और, इलाहाबाद के किसी शख़्स के लिए यही है अमिताभ बच्चन होने का मतलब, एक ऐसी रौशनी जो कभी आंखों से ओझल नहीं होती।

Adapted from English by Pankaj Shukla, consulting editor

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