अगर मंसूर खान के मन की हुई होती, तो जो जीता वही सिकंदर डायरेक्टर के तौर पर उनकी डेब्यू फिल्म होती। लेकिन, हालात ऐसे बने कि उन्हें अपने पिता की क़यामत से क़यामत तक (1988) निर्देशित करनी पड़ी जिसे उनके चचेरे भाई आमिर खान की शानदार लॉन्चिंग के लिए तैयार किया गया था। 80 का दशक कुछ बेहतरीन स्टार किड्स की लॉन्चिंग का गवाह बना जैसे कि रॉकी (1981) में संजय दत्त और बेताब (1983) में सनी देओल। आमिर के पास इन ऐक्टरों की तरह न तो दिखाने को बॉडी थी और न उनकी शख्सीयत ही ऐसी थी। क्यूएसक्यूटी (क़यामत से क़यामत तक, पहली ऐसी हिंदी फिल्म रही जिसके बाद फिल्मों और धारावाहिकों के नाम छोटे करके बोलने का चलन शुरू हुआ) में अपने किरदार के लिए आमिर ने मूंछें उगाने की भी कोशिश की, हालांकि बाद में इस आइडिया को ख़ारिज़ कर दिया गया। मंसूर ने ये तय कर रखा था कि वह ऐसी फिल्म बनाएंगे जो देखने में जवां हो, सामयिक हो और लोकप्रिय हो।
इसीलिए मंसूर ने फिल्म क्यूएसक्यूटी के गाने बनाने के लिए आर डी बर्मन की बजाय आनंद-मिलिंद से संगीत बनवाने की मांग की। आर डी बर्मन उनके पिता की फिल्मों के लिए सबसे कामयाब धुनें बना चुके थे। मंसूर की बहन नुज़हत खान बताती हैं, "मंसूर को लगा कि पंचम अंकल के साथ वह खुलकर काम नहीं कर पाएंगे क्योंकि वह बहुत सीनियर और प्रतिष्ठित संगीतकार थे। वह फिल्म के संगीत के लिए किसी युवा को इसलिए चाहते थे ताकि वह अपने दिल की बात खुलकर कह सकें।" नुज़हत का इस फिल्म की स्क्रिप्ट से लेकर कॉस्ट्यूम और पोस्ट प्रोडक्शन तक, हर काम में दखल रहा। एक्टर दलीप ताहिल, जिन्होंने फिल्म में आमिर के पिता का किरदार निभाया, वो वक़्त याद करते हैं जब हुसैन फिल्म में आमिर और जूही के पिताओं के किरदारों के लिए शम्मी कपूर और संजीव कुमार को लेना चाहते थे। वह बताते हैं, "तब मंसूर ने कहा था कि अगर ये फिल्म मैं बना रहूं तो मुझे अपने समय के कलाकार लेने होंगे क्योंकि मैं अपनी पहली ही फिल्म में संजीव कुमार और शम्मी कपूर को डायरेक्ट नहीं कर सकता।"
एक और बात फिल्म के बारे में जानने लायक है जिसमें सिर्फ और सिर्फ मंसूर की ही चली, वह है फिल्म का क्लाइमेक्स। उनको इस बात पर पूरा यक़ीन था कि रोमियो और जूलियट जैसी प्रेम कहानियों का अंत दुखद ही होना चाहिए। हुसैन, जिनका कि बॉक्स ऑफिस पर उन दिनों बुरा वक़्त चल रहा था, दर्शकों को नाराज़ करने का जोखिम मोल लेना नहीं चाहते थे। बाप-बेटे में फिल्म की रिलीज़ तक इस बात को लेकर बहस चलती रही कि सही क्या रहेगा। जितना ड्रामा फिल्म में आपने इसके क्लाइमेक्स को लेकर परदे पर महसूस किया होगा, उससे ज़्यादा ड्रामा इसको लेकर हुए आख़िरी फैसले तक होता रहा। पेश है इसी क्लाइमेक्स की कहानी, इसे बनाने वालों की ज़ुबानी:
नुज़हत खान: मैं उन दिनों अमेरिका में साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) की पढ़ाई करने गई हुई थी। जब मैं लौटी तो डैड एक कहानी तलाश रहे थे। वह शिद्दत से चाहते थे कि आमिर की पहली फिल्म वह लिखें। आमिर डैड के साथ उनकी कुछ फिल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर काम कर चुके थे। उन्होंने कहा कि मैं एक प्रेम कहानी के बारे में सोच रहा हूं। मंसूर तब अपनी खुद की स्क्रिप्ट लिख रहे थे जो बाद में जो जीता वही सिकंदर के नाम से बनी। तो मैं, मेरे डैड और बाद में आमिर क्यूएसक्यूटी की स्क्रिप्ट पर काम करने लगे।
बाद में हुआ ये कि जिस तरह से जो जीता वही सिकंदर आकार ले रही थी, उससे मंसूर खुश नहीं थे। क्यूएसक्यूटी डैड को ही डायरेक्ट करनी थी लेकिन इसी बीच वह बीमार पड़े और उनकी बाईपास सर्जरी करवानी पड़ी। तो हमने मंसूर से पूछा अगर वह इस फिल्म को बनाने के बारे में सोचना चाहेंगे। बहुत ना नुकुर की उन्होंने।
वह कहते रहे कि मैं नहीं जानता कि ठाकुर क्या होता है। मैं अपनी पूरी ज़िंदगी में ऐसे किसी शख़्स से मिला तक नहीं हूं। बहुत पीछे लगना पड़ा उनके। जब वह माने तो उन्होंने फिल्म के लिखने की प्रक्रिया में हिस्सा लेना शुरू किया। वह अपने साथ कहानी कहने की और किरदारों को गढ़ने की अपनी ख़ास शैली लेकर आए जो काफी लीक से हटकर था। हम लोग कुछ पुराने ढर्रे पर ही चल रहे थे और जब मंसूर आए तो उन्होंने कहानी में कई नए आयाम जोड़े- खासतौर से इसका बेहतरीन क्लाइमेक्स।
मंसूर खान: मैं फिल्मों का बहुत शौक़ीन नहीं था। मेरा मेनस्ट्रीम सिनेमा को लेकर बहुत अलग सोचना था जोकि मैं अब भी सोचता हूं। लेकिन मैं सोचने लगा कि मैंने बाहर पढ़ाई करके और फिर आखिरी साल में पढ़ाई छोड़ करके अपने पिता का बहुत पैसा बर्बाद कर दिया है और मेरी 9 से 5 वाली किसी नौकरी में भी दिलचस्पी नहीं थी। जो जीता वही सिकंदर में आमिर का किरदार इसी सोच से निकला। लेकिन, चूंकि मेरे पास इसकी कहानी तैयार नहीं थी तो मैंने कहा, चलो क्यूएसक्यूटी करते हैं।
मैं हर किरदार की पर्तें बनाना चाहता था। यहां तक कि जूही वाले किरदार को परेशान करने वाले चारों लड़के भी, मैं उन्हें खांटी विलेन नहीं बनाना चाहता था। वे बस चार लड़के थे जिन्होंने खूब बीयर पी ली थी और वे बदतमीज़ी पर उतर आते हैं। ऐसा नहीं कि वे खूंखार रेपिस्ट थे। मेरी अपने पिता से इस तरह के मुद्दों को लेकर खूब बहस होती थी। तो फिल्म की 50 फीसदी स्क्रिप्ट मेरी थी और 50 प्रतिशत मेरे पिता की। एक चीज़ जिस पर हम लोग कभी एक नहीं हो सके, वह था फिल्म का क्लाइमेक्स। मेरे लिए ये हमेशा से दुखांत ही होना था, लेकिन मेरे डैड इस पर यक़ीन खो चुके थे।
नुज़हत खान: हमने ये फिल्म बहुत ही शांति से बनाई क्योंकि इससे पहले डैड की जो कुछ फिल्में रिलीज़ हुई थीं वे ज़्यादा चली नहीं थी। तो हम इसे बनाने वक़्त ज़्यादा मग़रूर नहीं थे। हम बैंगलोर गए और फिल्म के क्लाइमेक्स की शूटिंग के साथ काम शुरू कर दिया। डैड ने हमारे साथ दो बहुत सीनियर लोग ज़रूर भेजे जो उनकी फिल्मों का प्रोडक्शन संभाल चुके थे। हम उन छोटे बच्चों की तरह थे जिन्हें ऐसे लोगों के साथ भेज दिया गया था, जिन्हें हम बचपन से जानते थे। वहां जाकर ये थोड़ा जेनरेशन गैप वाला मामला भी बन गया था।
मंसूर खान: मैंने फिल्म की नई एंडिंग सेट पर ही लिख डाली। मैंने सबको बता दिया कि मैं इससे खुश नहीं हूं। हम लोग लोकेशन पर पहुंचे और हर कोई शॉट के लिए तैयार हो रहा था, मुझे ये चीज़ परेशान कर रही थी। मुझे लगा कि इस सीन में उतना दम या बिल्ड अप नहीं था जितना होना चाहिए, तो मैंने उसे वहीं फिर से एक बार और लिखा। मैं दर्शकों के बारे में नहीं सोचता हूं। चूंकि मैं बहुत ज़्यादा फिल्में देखता नहीं हूं तो मुझे नहीं पता था कि कहां वे सीटियां बजाएंगे, कहां तालियां बजाएंगे या कहां सिक्के उछालेंगे। ये जानना कई बार अच्छा होता है लेकिन कई बार अपने यक़ीन पर ऐतबार करना भी अच्छा होता है।
जब हम ट्रायल से बाहर आए, तो सारे बुजुर्ग कहते मिले, 'नहीं, नहीं, इस फिल्म का अंत दुखद नहीं होना चाहिए।' कुछ ने मेरे पिता से कहा कि बेटे को समझाओ, ये काम नहीं करेगा, उसे इसका कुछ पता नहीं। दूसरी तरफ सारे बच्चे थे, 'नहीं, नहीं चाचाजान, ये अच्छा है।' सीधा बंटवारा हो चुका था क्योंकि जो बड़े लोग थे वे अपने एहसासों के हिसाब से नहीं बोल रहे थे बल्कि वे उस पैटर्न के हवाले से बोल रहे थे कि ऐसी फिल्में काम नहीं करतीं।
दलीप ताहिल: मुझे याद है सारे ड्रिस्टीब्यूटर्स नासिर साब के पास और कहने लगे कि प्लीज़, फिल्म की एंडिंग बदल दीजिए। फिल्म की एंडिंग दुखद नहीं हो सकती, फिल्म बैठ जाएगी। कुछ लोगों ने ये भी कहा कि उन्हें राज कपूर की फिलॉसफी माननी चाहिए, जवां प्यार को कभी मारना नहीं चाहिए।
मंसूर खान: मेरे डैड एक और फिल्म बना चुके थे बहारों के सपने (1967) जिसमें ओरीजनली हीरो हीरोइन (राजेश खन्ना और आशा पारेख) दोनों मर जाते हैं और ये फिल्म की कहानी के हिसाब से दुरुस्त एंडिंग थी। लेकिन जब वो थिएटरों में फिल्म का रिएक्शन देखने गए और देखा कि लोग उनसे नाराज़ हो रहे हैं, तो उन्हें काफी धक्का लगा। तब तक वह एक के बाद एक हिट फिल्में ही बनाते आ रहे थे। जब वह एक थिएटर के बरामदे में खड़े थे तो उन्होंने लोगों के मुंह से अपने लिए गालियां सुनीं। वह घबराकर बाहर निकले और अगले दो दिन में ही उन्होंने फिल्म का नया क्लाइमेक्स शूट कर डाला। इसके बाद वह हर थिएटर गए, फिल्म की रील काटी और नई एंडिंग जोड़कर आए।
दलीप ताहिल: तो मंसूर वापस बैंगलोर गए जहां उन्होंने फिल्म का ओरीजनल क्लाइमेक्स शूट किया था और इसे एक हैपी एंडिंग के साथ फिर से शूट किया। लेकिन वह शूट में शामिल नहीं हुए। पहली बार मैंने उन्हें दूर एक कुर्सी पर बैठे देखा और वह लोगों को कह रहे थे कि जो भी शूट करना है, उसे बस कर लो। मुझे याद है कि उन्होंने नासिर साब को भी बोल दिया था कि अगर वह फिल्म को हैपी एंडिंग के साथ रिलीज़ करना चाहते हैं तो फिल्म से उनका नाम हटा दें। इस बात ने नासिर साब को झकझोर दिया। सही क्या है, इस बारे में लोगों की राय जानने के लिए वह न जाने कितने लोगों से मिले होंगे।
आखिर में वह उनके पास गए जिन्हें वह फिल्म इंडस्ट्री का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति समझते थे, जिनका नाम था- राही मासूम रज़ा। राही साब एक जाने माने लेखक थे और उन्होंने कहा कि अगर तुम फिल्म की एंडिंग सुखांत रखते हो तो तुम खूब पैसे बनाओगे और फिल्म भी खूब चलेगी लेकिन यह कभी कालजयी फिल्म नहीं बन पाएगी। इस बात से नासिर साब को यक़ीन हो गया और इसके बाद हमें कभी फिल्म की ये हैपी एंडिंग इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं हुई।
मंसूर खान: क्यूएसक्यूटी की रिलीज़ के बरसों बाद, टेलीविज़न पर एक दिन बहारों के सपने आ रही थी और मेरे डैड उसे देख रहे थे। मुझे याद है मैं कहीं जा रहा था लेकिन मुझे फिल्म ने अपने में बांध लिया और मैं बैठकर फिल्म देखने लगा। जब फिल्म खत्म होने के करीब आई तो मुझे बहुत निराशा हुई और मैंने डैड से कहा, 'देखिए, मेरा ये मतलब था।' तब जाकर उन्होने माना, 'हां तुम सही थे।'
Adapted from English by Pankaj Shukla, consulting editor